स्वस्थ रहने का मूल मन्त्र
युक्ता हारविहारस्य युक्तचेष्टस्यकर्मसु ।
युक्तस्वपना व बोधस्य भागो भवति दुःख’।।
आयुर्वेद में रोगों की चिकित्सा से पूर्व मानव को स्वस्थ रखने की पूरी-पूरी चेष्टा की गई है और ऐसी अनेकानेक विधियॉं बताई गई हैं कि मनुष्य बिमार न हो और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति कर सके। उपरोक्त मंत्र आयुर्वेद में व गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि ठीक प्रकार से आहार विहार करने वाले व कर्मों में यथा योग्य चेष्टा करने वाले और यथा योग्य शयन करने, समय पर जागने वाला व्यक्ति दुःखों से रहित योगसिद्ध होता है।
आयुर्वेद के पुराने ग्रन्थों में वैद्य को सुझाव दिया गया है कि वह अपनी जीविका के लिए आयुर्वेद को आधार न बनावें बल्कि अजीविका के लिए कोई और कर्म साथ करें। परन्तु आज के युग में यह सम्भव नहीं है और जो व्यक्ति साथ-साथ में कोई और कार्य करता हो व चिकित्सा को पार्ट-टाइम करता हो उसको लोग चिकित्सक समझते ही नहीं व रोगी नहीं आते। इसलिए आज के युग में इसे एक अजीविका के साधन के साथ ही लेकर चिकित्सा कार्य करना उचित है। इसलिए वैद्य को निर्देश है कि वह रोगी से उचित मूल्य ग्रहण करें और धर्म, अर्थ,
काम, मोक्ष को लक्ष्य रखकर ही चिकित्सा कार्य करें अर्थात चिकित्सा करने से धर्म की प्राप्ति होती है, कहीं मोक्ष की प्राप्ति होती है और कहीं धन की प्राप्ति होती है ।
जब वैद्य निःस्वार्थ भाव से चिकित्सा करता है तो अमीर व्यक्ति से औषध का पूरा मूल्य लेवें और गरीब से कम से कम मूल्य लेवें तो उससे स्वतः ही धर्म, अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है परन्तु आजकल बहुत से चिकित्सक विशेषकर पाश्चात्य चिकित्सक अत्याधिक मूल्य लेतें है और अनावश्यक रूप से बहुत सारे टेस्ट लिख देतें है जिससे रोगी और उसके परिचारक परेशान हो जाते हैं और डॉक्टर को गालियां निकालते हैं। ऐसा कर्म करने वाले डॉक्टरों का कभी भला नहीं होता। हमने अपने जीवन में सैंकडो डॉक्टरों के परिवारों को नष्ट होते देखा है। पाप की कमाई से पलने वाले बच्चे दुश्चरित्र हो जाते है और वे माता-पिता द्वारा कमाया गया धन व अपना जीवन नष्ट कर देते हैं। अतः ऐसा पाप का धन कभी भी किसी को भी नहीं कमाना चाहिए।