आयुर्वेद के कुछ मूल मंत्र
अग्निमूलं बलं पुसां रेतो मूलं च जीवितम्।
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन वन्हि शुक्रं रवायेन।
अर्थात मनुष्य शरीर में अग्नि व वीर्य दो बहुत महत्त्वपूर्ण तत्व है इनकी रक्षा मे सदा सावधान रहना चाहिए क्योंकि बल का कारण अग्नि और जीवन शुक्र के अधीन है।
यावत् कण्ठगताःप्राणस्तावत् कार्यप्रतिक्रिया।
कदाचिददेवयोगेन दृष्टारिष्टोऽपि जीवति।।
अर्थात जब तक सांस तब तक आस। तब तक रोगी की चिकित्सा करनी चाहिए क्या पता कब परमात्मा प्रसन्न हो जाए और जीवन दान मिल जाए। आरोग्यं मूल मुत्तमम् अर्थात आरोग्य दान सब दानों में श्रेष्ठ है अतः चिकित्सक को यह अनुभव करना चाहिए कि वह सर्व श्रेष्ठ कार्य कर रहा है और इसमें कोई बेइमानी अर्थात धन का लोभ न करें और व्यावहारिक दाम लें।
समदोषाः समाग्निश्च, समधातु मल क्रिया।
प्रसन्नोत्मेन्द्रिय मनः सुस्थभित्याभिधियते
अर्थात शरीर में सारे दोष सम हो और अग्नि भी सम हो धातु भी सम हो और मल क्रिया अर्थात मल मूत्र और पसीना आदि मलों का निस्सरण ठीक प्रकार से हो तो आत्मा और मन स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं। अतः हर व्यक्ति को इन सब बातों को अनुसरण करने के लिए खान-पान और रहन सहन ठीक रखना चाहिए अर्थात सुबह जल्दी उठना, योगा, प्राणायाम,सैर, ध्यान साधना, शौच, पूजा पाठ आदि करना तत्पश्चात अपनी आयु, शरीर, समय, काल, ऋतु के अनुसार स्वच्छ, शक्ति दायक भोजन करना चाहिए।
शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् अर्थात सुदृढ़ निरोगी शरीर मे ही निरोग मन रहता है और धर्म का साधन भी तभी हो सकता है इसलिए हर साधन से शरीर को निरोग रखने का उपक्रम करना चाहिए।
व्याधेस्त्तत्व परिज्ञानं वेदनायाश्च निग्रहः।
एतद वैद्यस्य वैद्यत्वं न वैद्यः प्रभुरायुषः।।
अर्थात वैद्य का कर्तव्य है कि रोगी की व्याधि को भली प्रकार से निदान करके शान्त करने का प्रयत्न करना और उत्मोत्तम औषधि देना और परिचारक को भली भान्ति समझाना। इसके बाद सफल होना या न होना रोगी की आयुष्य पर निर्भर है।